Tuesday, November 15, 2011

सेना विशेषाधिकार कानून पर मणिपुर जैसी गलती दोहराना नहीं चाहती

नई दिल्ली,(15/11/11)(Tehelkanews)

सेना जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम हटाने के मामले में मणिपुर जैसी भूल दोहराना नहीं चाहती।





सेना ने इस विषय पर दो दिन पहले घाटी में सुरक्षा बलों की एकीकृत कमान के सामने प्रस्तुति देते हुए साफ कहा है कि जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से इस कानून को हटाने लायक हालात कतई नहीं हैं और कानून को हटाना राष्ट्रहित में नहीं होगा।





सेना ने 2004 में इंफाल के कुछ हिस्सों से आफ्सपा हटाए जाने के बाद के हालात का हवाला देते हुए आशंका जताई है कि यदि घाटी में यह प्रयोग दोहराया गया तो इसके परिणाम इंफाल से भी भयावह हो सकते हैं। सात साल पहले मणिपुर से आफ्सपा हटाने की कार्रवाई को सेना एक भूल मानती है।





सेना से जुड़े सूत्रों ने दैनिक भास्कर को बताया कि उमर अब्दुल्ला के समक्ष दी गई प्रस्तुति में सेना ने उन हालात का हवाला दिया है जिनसे इस एक्ट की वापसी खतरनाक हो सकती है। सेना ने खुफिया एजेंसियों की उस जानकारी को भी अपनी प्रस्तुति में शामिल किया है जिसमें कहा गया है कि सीमा पार पाक अधिकृत कश्मीर में न केवल आतंकी प्रशिक्षण ढांचा कायम है बल्कि वहां करीब 2500 प्रशिक्षित आतंकी घुसपैठ के लिए सही मौके की फिराक में हैं। जम्मू-कश्मीर में करीब 400 आतंकी अब भी मौजूद हैं जो आफ्सपा हटाते ही उन क्षेत्रों को अपना ठिकाना बना सकते हैं जहां से भी इसे हटाया जाएगा।





पता चला है कि बैठक में मौजूद सेना की 15वीं व 16वीं कोर के शीर्ष अधिकारियों ने उमर को बताया कि घाटी में मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतों में से केवल 3 फीसदी में ही दम पाया गया है। जिन क्षेत्रों से आफ्सपा की वापसी की मांग की जा रही है वहां सेना कोई ऑपरेशनल ड्यूटी नहीं कर रही लेकिन उसके कारवां वहां से नियमित रूप से गुजरते हैं। सेना ने पिछले साल कमान द्वारा आफ्सपा वापसी पर विचार के लिए गठित उप समिति द्वारा दो माह पहले अगस्त में दी गई उस रिपोर्ट का भी हवाला दिया है जिसमें कहा गया है कि 5 हजार सैनिकों की शहादत के बाद कायम हुई शांति के मनोवैज्ञानिक लाभ को इस कानून में ढील देकर खोया नहीं जा सकता।



एकतरफा फैसला आसान नहीं



उधर आफ्सपा कानून की धारा 3 में इस बात का साफ उल्लेख है कि राज्य सरकार एकतरफा कानून के बारे में कोई फैसला नहीं ले सकती। यदि उमर सरकार इस बारे में कोई भी प्रस्ताव पारित करती है तो उसकी सिफारिश पर फैसले का अधिकार केवल राज्यपाल एनएन वोरा को ही है।



हंगामा क्यों है बरपा



कश्मीर घाटी में हिंसा की आग फैलने के कारण यह एक्ट जुलाई 1990 में लागू किया गया जबकि जम्मू क्षेत्र में इसे अगस्त 2000 में लागू किया गया। कश्मीर में पाक प्रायोजित सशस्त्र संघर्ष से निपटने में सेना को मिली सफलता से वहां के अलगाववादी व पाक समर्थक तत्व निरंतर इस एक्ट को हटाने की मांग करते आए हैं।



क्या है सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून



संसद ने 11 सितंबर 1958 को सशस्त्र सेनाएं विशेष शक्तियां अधिनियम पारित किया। एक्ट के तहत अशांत क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किसी क्षेत्र विशेष में सेना के गैर-कमीशन अधिकारी को आशंका होने पर किसी व्यक्ति विशेष या स्थान की बिना वारंट तलाशी लेने, अनधिकृत रूप से घातक हथियारों से लैस पांच या अधिक व्यक्तियों पर जरूरत होने पर फायर करने और बिना वारंट के किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्तियां हासिल हैं।



एक्ट के तहत सेना व अर्धसैनिक बलों को कानूनी संरक्षण दिया गया है जिसके चलते बिना केंद्र सरकार की मंजूरी के मामला नहीं चलाया जा सकता और न ही अदालत में तलब किया जा सकता।



एक्ट के तहत उनके खिलाफ किसी भी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती और न ही किसी क्षेत्र विशेष को डिस्टर्ब घोषित करने के सरकार के फैसले की कानूनी समीक्षा की जा सकती है।



कहां लागू रहा है कानून





इस एक्ट के तहत ही अलग- अलग समय पर पंजाब, मिजोरम, असम व त्रिपुरा जैसे राज्यों में सशस्त्र आतंकी व स्थानीय संघर्षो से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए सेना व सशस्त्र बलों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा चुका है। आज भी देश के मणिपुर,असम,नगालैंड व जम्मू- कश्मीर में यह एक्ट लागू है।





गृह मंत्रालय सर्वानुमति के साथ उमर के प्रस्ताव पर भी चर्चा के पक्ष में







सेना की ओर से जारी विरोध के बीच गृह मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर में लागू सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के मसले पर सर्वानुमति की बात करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के विकल्प पर भी चर्चा करने की वकालत की है। यह एक तरह से रक्षा मंत्री एके एंटनी के शुक्रवार को दिए गए बयान पर सरकार के अंदर विरोधाभास को उजागर करता है। रक्षा मंत्री ने कहा था कि इस मसले पर कोई भी फैसला सशस्त्र बलों की एकीकृत कमान करेगी। पिछले साल सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) ने भी इसी कमान पर निर्णय छोड़ा था।





एंटनी के बयान के एक दिन बाद मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि केंद्र सरकार पहले ही यह साफ कर चुकी है कि इस मसले पर और अधिक चर्चा की जरूरत है। सीसीपीए ने यह फैसला लिया था। गृह मंत्री स्वयं इसके सदस्य हैं।





इस अधिकारी ने कहा, उनका मत है कि राज्य में शासन कर रही सरकार जनता की ओर से चुनी गई है। अगर उमर कोई विकल्प अपनाना चाहते हैं तो उसे एक सिरे से खारिज नहीं करना चाहिए, उस पर भी चर्चा हो। मंत्रालय के एक अन्य अधिकारी ने कहा,'राज्य और केंद्र सरकार दोनों की प्राथमिकता राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखना और विश्वास बहाली है। ऐसे में विभिन्न विकल्पों को अपनाने की जरूरत है। राज्य सरकार के विकल्प पर भी व्यापक चर्चा होनी चाहिए। ' उमर अब्दुल्ला राज्य में कुछ इलाकों से विशेष सैन्य कानून हटाना चाहते हैं।





हालांकि इस मसले पर अब उन्होंने भी कुछ नरम रुख दिखाया है। पहले वह जहां पूरे राज्य से इसे हटाना चाहते थे वहीं अब वह इसे चुनिंदा स्थानों से प्रायोग के तौर पर हटाने की बात कर रहे हैं। लेकिन सेना का कहना है कि ऐसा होने पर उन्हें आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई में समस्या आएगी। यही नहीं, हजारों कुर्बानी देकर जो मनोवैज्ञानिक लाभ उन्होंने हासिल किया है, वह भी खत्म हो जाएगा।





इस अधिकारी ने कहा, 'मंत्रालय के स्तर पर किए गए कार्यो की बात करें तो विश्वास बहाली के लिए राज्य में मौजूद बंकर (जहां सीआरपीएफ तैनात थी) और चेकिंग प्वाइंट की संख्या कम की गई है। औचक तलाशी भी कम की गई है। इसके सकारात्मक संकेत दिख रहे हैं। हालांकि चौकसी पहले की तरह रखी जा रही है।' मंत्रालय की ओर से गठित वार्ताकार समूह ने भी राज्य में इस कानून में शिथिलता की वकालत की है।
News From: http://www.7StarNews.com

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